देश-दुनिया

नहीं रहे आम आदमी की जिन्दगी के चितरे – बासु चटर्जी

बासु चटर्जी का अवसान
डॉ.बचन सिंह सिकरवार

साभार सोशल मीडिया

प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक बासु चटर्जी के निधन के साथ ही समानान्तर सिनेमा कहें या कहें जनसाधारण की समस्याओं, उनके छोटे-छोटे सपने, उन्हें पाने के लिए अनवरत, अथक संघर्ष और उनमें मामूली कामयाबी/खुशी से ही सन्तोष करने वाले, उनके दुःख-दर्द, पीड़ा, मानवीय रिश्तों और उनकी संवेदनाओं को अत्यन्त गहराई से दर्शाने वाले सत्यजीत राय, मृणाल सेन, ऋतिक घटक, श्याम बेनेगल वाले फिल्मकारों की श्रृंखला का एक और सदस्य इस दुनिया से इसी 4 जून को 93 साल की उम्र में चला गया। बासु चटर्जी की एक खूबी यह भी थी कि वह जिस आम आदमी को फिल्मी पर्दे पर दर्शाते थे, उसी आम आदमी की तरह खुद भी जीते थे। उनकी फिल्मों के पात्र ही आम आदमी और सामान्य चेहरे वाले नहीं , उनकी ज्यादातर फिल्मों का माहौल भी आम जनजीवन से जुड़ा होता था। हालाँकि उन्होंने अपने समय के लोकप्रिय अभिनेता-अभिनेत्रियों को लेकर भी बनी कुछ व्यावसायिक फिल्मो का निर्देशन भी किया, पर वे उतनी सफल नहीं रहीं, जितनी कि आम कलाकारों और आम आदमी की कहानियों पर बनीं फिल्में।

साभार सोशल मीडिया

बासु चटर्जी का जन्म राजस्थान के अजमेर के बंगाली परिवार में पैदा हुआ, पर बाद वे मुम्बई आ गए और जीवन पर्यन्त रहे । वह बचपन से ही फिल्में देखने के शौकीन थे। मुम्बई आने के बाद बासु चटर्जी ‘फिल्म सोसाइटी मूवमेण्ट’से जुड़ गए। इसके माध्यम से वह अपने देश के विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग भाषाओं में बनी फिल्मों के साथ-साथ ‘हालीवुड’ की फिल्में भी देखा करते थे। वह व्यंग्यचित्रकार(कार्टूनिस्ट) थे। फिल्मी दुनिया में वह ‘बासु दा’ के नाम से जाने जाते थे। ये नाम भी उन्हें अपने स्वभाव और व्यवहार के कारण मिला था। वह फिल्मों के निर्देशन के साथ पठकथाएँ भी लिखा करते थे।
बासु चटर्जी फिल्म के सेट पर अनुशासित रहते और कलाकारों तथा अपनी टीम के सदस्यों से भी अनुशासित रहने की अपेक्षा भी रखते थे, पर ज्यादातर निर्देशकों की तरह उन पर अपने निर्देशक होने का रौब नहीं दिखाते थे। वह कलाकार या किसी और से गलती होने पर न जोर चीखते -चिल्लाते और न बहुत नाराज ही होते थे। सत्यजीत राय की तरह वह सेट के दृश्य की ड्रॉइंग तो नहीं बनाते थे, लेकिन एक कॉपी में कलाकारों के खड़े होने के स्थान, कैमरा, लाइट की स्थिति से सम्बन्धित निर्देश पहले से तैयार करके लाते थे।
बासु चटर्जी के फिल्मी सफर की शुरुआत प्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’पर आधारित मशहूर गीतकार शैलेन्द्र द्वारा बनायी गई फिल्म ‘तीसरी कसम’ से हुई थी। इसके नायक राजकपूर और नायिका वहीदा रहमान थीं। इसके गीत स्वयं शैलेन्द्र ने लिखे थे और उसमें संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था। इस फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य और बासु चटर्जी उनके सहायक थे। बाद में बासु भट्टाचार्य के नक्शेकदम पर चलते हुए बासु चटर्जी ने भी उपन्यास तथा साहित्यकार राजेन्द्र यादव के प्रसिद्ध उपन्यास‘सारा आकाश’ पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया। इसके लिए वित्तीय सहायता ‘राष्ट्रीय फिल्म वित्त विकास निगम’(एन.एफ.डी.सी.) से लेकर नए कलाकार राकेश पाण्डे, नन्दिता ठाकुर आदि के साथ नए कैमरामैन के.के.महाजन को लिया। ये सभी भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान( आई.एफ.टी.आई.), पुणे से प्रशिक्षित थे। ‘सारा आकाश’ उपन्यास की पृष्ठभूमि आगरा के राजामण्डी और गोकुलपुरा मुहल्ले की होने के कारण यहीं आकर उन्होंने इसका फिल्मांकन (शूटिंग) किया। इसमें कुछ स्थानीय कलाकारों के साथ-साथ यहीं के लोकगीत तथा लोकसंगीत का उपयोग भी किया, जिसमें प्रसिद्ध नाट्यकर्मी राजेन्द्र रघुवंशी ने सहयोग दिया था। उनकी यूनिट के सदस्य गाँधी नगर ,आगरा में ठहरे थे। यह फिल्म एक ऐसे युवक के बारे में थी, जिसके परिजन लोक चलन को देखते पढ़ाई के दौरान ही उसकी इच्छा के विरुद्ध विवाह कर देते हैं, लेकिन वह शादी से पहले अपने लक्ष्य को पूरा करना चाहता था। विवाह के बाद वह दुविधा में पड़ जाता है कि नवविवाहिता पत्नी कैसा व्यवहार करें ?
बासु चटर्जी के दूसरी फिल्म राजेन्द्र यादव की साहित्यकार पत्नी मन्नू भण्डारी के उपन्यास ‘यही सच है’पर बनी ‘रंजनी गन्धा’ है। इसमें प्रेम के त्रिकोण को दर्शाया गया है। यह फिल्म अभिनेता अमोल पालेकर, दिनेश ठाकुर और अभिनेत्री विद्या सिन्हा को लेकर बनायी गई, जो बहुत लोकप्रिय हुई। इसका गीत ‘रंजनीगन्धा फूल तुम्हारे हरदम महके जीवन में ’बहुत पसन्द किया गया। उन्होंने अनिल धवन और जया भादुड़ी को लेकर राजश्री प्रोडक्शन के लिए ‘पिया का घर’बनायी, जो घर की समस्या पर आधारित थी। इसकी ज्यादातर शूटिंग चौल में ही हुई थी, ताकि उसमें कथा की पृष्ठभूमि के अनुसार वास्तविकता दिखायी दे। इसके बाद राजश्री प्रोडक्शन के लिए ‘चितचोर’ निर्देशन किया। इसमें अमोल पालेकर, जरीना वहाब, विजेन्द्र आदि थे। इसके दो गीत- ‘जब दीप जले आना,जब शाम ढले आना’ तथा ‘गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा’ बहुत लोकप्रिय हुए थे।
सन् 1976 में बासु चटजी ने अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा को लेकर ‘छोटी-सी बात’ बनायी, जिसका ‘जाने मन ,जानेमन तेरे ये दो नयन’ बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुआ।यह फिल्म भी खूब चली। इसके बाद सन् 1977 में उन्होंने शबाना आजमी को लेकर फिल्म ‘स्वामी’ बनायी। इसका गीत ‘क्या करूँ सजनी आए न बालम’ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। इस फिल्म को भी दर्शकों ने बहुत सराहा गया। इसी साल उन्होंने ‘प्रियतमा’ का निर्देशन किया। इसका एक गीत‘ कोई रोको न दीवाने को’ बहुत लोकप्रिय हुआ। अगले वर्ष उन्होंने ‘खट्टा – मीठा’ का निर्देशन किया, जो एक प्रौढ़ विधुर और विधवा की शादी से पैदा समस्या पर आधारित थी। इसमें अशोक कुमार मुख्य भूमिका में थे। इसका भी एक गीत काफी चर्चित हुआ – ‘थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है। सन् 1978 में उनकी निर्देशित फिल्म ‘दिल्लगी’ प्रदर्शित हुई, जिसमें शत्रुघ्न सिन्हा हीरो थे। फिल्म ‘दिल्लगी’का यह गीत- मैं कौन-सा गीत गाऊँ’ बहुत पसन्द किया गया। फिर सन् 1979 फिल्म ‘बातों-बातों’ का निर्देशन किया। इसका भी यह गीत‘ उठे सबके कदम रम-पम’ लोकप्रिय हुआ था। सन् 1980 में उन्होंने शबाना आजमी, अमोल पालेकर, भारती आचरेकर को लेकर ‘अपने -पराये’ भी बनायी। इसी साल फिल्म ‘मन पसन्द का निर्देशन भी किया। फिर सन् 1982 में ‘हमारी बहू अलका’ तथा ‘‘शौकीन’ बनायीं। इनमें शौकीन में अशोक कुमार, ए.के.हंगल, उत्पल दत्त थे। यह फिल्म बुजुर्गों के मनोविज्ञान पर आधारित थी। कुछ बुजुर्गो के मन में प्रेम और रोमांस की इच्छा दबी रह जाती है, वे उसे किसी भी तरह मौका मिलने पूरा करना चाहते हैं। सन् 1984 में ‘लाखों की बात’ फिर 1986 में ‘एक रुका फैसला’ तथा ‘किराएदार’ फिल्मों का निर्देशन किया। सन् 1986 में ही अनिल कपूर तथा अमृता सिंह, दारा सिह आदि को लेकर बनी फिल्म ‘चमेली की शादी’ का निर्देशन किया, जो बहुत पसन्द की गई। इनके अलावा व्यावसायिक सिनमा फिल्में जहाँ अभिताभ बच्चन तथा मौसमी चटर्जी को लेकर ‘मंजिल’बनायी, तो वहीं राजेश खन्ना को लेकर ‘चक्रव्यूह’। सन् 1989 में ‘कमला की मौत’ नामक फिल्म निर्देशन किया। बासु चटर्जी ने अपनी फिल्मों में आम जीवन की समस्याओं को छूते हुए स्वास्थ्य मनोरंजन का भी पूरा ध्यान रखा है। यही कारण है कि उनकी फिल्मों में गीत-संगीत का भी पूरा ख्याल रखा।
बासु चटर्जी उन फिल्मकारों में से थे, जिन्होंने दूरदर्शन यानी टी.वी.के इस महत्त्व को समझा कि इसकी पहुँच सिनेमा की अपेक्षा कहीं अधिक है। फिर उसमें अपना यथासम्भव योगदान किया। इस माध्यम से व्यक्ति अपने परिवार के साथ कार्यक्रम देखता है। यह देखते हुए उसमें मनोरंजन के साथ पारिवारिक, सामाजिक, मानवीय मूल्यों का पूरा ध्यान रखा। इसके लिए उन्होंने साहित्यिक रचनाओं पर आधारित धारावाहिक बनाए। यथा- व्योमकेश बख्शी, रजनी, दर्पण, कक्काजी कहिन विशेष लोकप्रिय हुए। इनमें ‘व्योमकेश बख्शी’ में रजत कपूर ने जासूस और के.के.रैना उनके सहायक की भूमिका अभिनीत की थी। ‘रजनी’ अन्याय के विरुद्ध लड़ने वाली युवती की कहानी थी। इसमें रजनी की भूमिका प्रिया तेन्दुलकर ने निभायी थी। कक्काजी कहिन भी एक साहित्यिक राजनीतिक व्यंग्य था। इसमें काकाजी के चरित्र में ओमपुरी थे।
यद्यपि वर्तमान में भी कुछ लोग जनसमस्याओं को लेकर फिल्में और धारावाहिक बना जरूर रहे है, पर उनमें वह समझ और विषय की गहराई नहीं है, जो बासु चटर्जी के समय के उन जैसे फिल्मकारों में रही थी। उनके इस दुनिया से जाने से फिल्म जगत् में जो रिक्तता आ गयी है,उसकी भरपाई सहज सम्भव नहीं है।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार-63ब,गाँधी नगर,आगरा-282003 मो.नम्बर-9411684054

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