लेख साहित्य

कब होगा -महाराणा प्रताप का सही मूल्यांकन

ज्येष्ठ सुदी तीज 25मई पर विशेष-

साभार सोशल मीडिया

डॉ.बचन सिंह सिकरवार
देश को स्वतंत्र हुए कोई 74साल हो गए, लेकिन अब तक हमने अपने इतिहास को न भारतीय दृष्टि स लेखन का प्रयास किया है और न ही अपने महापुरुषों का उचित मूल्यांकन ही कर पाए है। परिणातः महाराणा प्रताप समेत ऐसे तमाम ऐतिहासिक महापुरुष हैं,जिन्हें अब भी अपने सही मूल्यांकन की आवश्यकता है। जिसे आज हम भारतीय इतिहास कहते है,उसे अधिकतर विदेशी आक्रान्ताओं के साथ आए लोगों,उनके दरबारियों, उनके समकालीन उनके ही मजहब के विद्वानों, या फिर विदेश यात्रियों द्वारा लिखा गया है। पहले तो भारत में उस प्रारूप में इतिहास लेखन करने की परम्परा नहीं,जो यूरोप में मान्य है। भारतीय के इतिहास लेखन की रीति ‘रामायण’,महाभारत समेत तमाम ऐतिहासिका,धार्मिक,साहित्यिक काव्य,महाकाव्य एवं साहित्य की दूसरी विधाओं में लिखी गई है,जिसे यूरोपीय इतिहासकार उस साहित्य वर्णित तथ्यों,घटनाओं के विवरण को इतिहास में सम्मिलित नहीं करते। फिर आक्रान्ताओं के इतिहास लेखक विजितों को अपने शासकों के समकक्ष महत्त्व भला क्यों देने लगे? ऐसे में विदेशी इतिहासकारों द्वारा लिखे इतिहास का भारतीय दृष्टि स ेलेखन अत्यन्त आवश्यकता है,ताकि अपने ऐतिहासिक महापुरुषों के व्यक्तित्व एवं कृतिव्य का उचित मूल्यांकन कर सकें।
देश में अधिकतर इतिहासविद् ,विद्वजन और साहित्यकार अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि मुगल सम्राट अकबर महान् था या फिर महाराणा प्रताप। ये लोग मुगल सम्राट अकबर को धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद का पोषक और संरक्षक मानते हैं। यही नहीं,पहले भी अपने देश के कई नामी गिरामी इतिहासकारों ने उसे महान मुगल बादशाह यानी ‘अकबर द ग्रेट मुगल’कहा और उसी शीर्षक से पुस्तक भी लिखी है। इतना ही नहीं, उसकी तारीफ में बड़े-बड़े कसीदे काढ़े हैं। इनमें से कुछ इतिहासकारों ने महराणा े प्रताप की प्रशंसा में भी कमी नहीं छोड़ी है। उन्हें महान देशभक्त, आदर्शवादी, सिद्धान्तवादी बताते हुए उनके शौर्य, पराक्रम, वीरता, धीरता, बुद्धिमत्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वे उन्हें ‘अद्वितीय योद्धा’ भी मानते हैं। क्या देश के स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी इस प्रश्न पर स्वतंत्र मन-मस्तिष्क से विचार नहीं कर सकते ? यहाँ प्रश्न यह है कि एक ही समय के दो परस्पर विरोधी एक साथ समान सम्मान के पात्र कैसे हो सकते हैं? इस विरोधाभास का सटीक उत्तर देने में अधिकांश इतिहासकार कतराते हैं, क्यों कि भारतीय जनमानस में महाराणा प्रताप की जैसी तस्वीर तत्कालीन लोक गायकों , इतिहासकारों, कवियों, लेखकों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से गढ़ी है जो लोगों के मन-मस्तिष्क अमिट बनकर रह गयी है, वैसी लोक जीवन में अकबर की छवि कहीं नहीं है। अकबर के प्रशंसक इतिहासकारों में डॉ.आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव , डॉ.राम प्रसाद त्रिपाठी, डॉ.रघुवीर, पण्डित राहुल सांस्कृत्यायन, डॉ.गोपीनाथ आदि हैं। ये ही इतिहासकार महाराणा प्रताप को महान देश भक्त, आदर्शवादी और अनुपम योद्धा बताते है, किन्तु उन्हें हठी और जिद्दी बताते हुए उनकी जीभर कर निन्दा और आलोचना भी करते हैं। इनके विचार से महाराणा प्रताप ने मुगल सम्राट अकबर से कथित सन्धि न करके उसके राष्ट्रहित के प्रयासों को बाधा पहुँचायी। उससे असहयोग करके अकबर के राष्ट्रीय सद्कार्यों विरोधाभास नहीं हैं? एक ओर महाराणा देशभक्त हैं और दूसरी ओर देश के अहितैषी भी हैं।
यह सच है कि सोलहवीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर एक बडे़ साम्राज्य का शक्तिशाली शासक था।दूसरी ओर महाराणा प्रताप एक बड़े प्रतापी कुल के प्रतिनिधि थे। उनके पास अकबर की तुलना में भू-भाग, धन-धान्य, सैन्य शाक्ति भले ही कम थी लेकिन देश के लोगों में जो मान-सम्मान महाराणा के कुल को प्राप्त था उसके आगे अकबर कहीं नहीं ठहरता था। फिर भी अकबर की ओर से महाराणा प्रताप से युद्ध के स्थान पर बार-बार सुलह के प्रयासों का प्रश्न है तो वह उसकी उदारता नहीं, इसकी पृष्ठभूमि अकबर की गहन कूटनीति थी। वह अपने हितैषी राजपूतों को रुष्ट करना नहीं चाहता था, जिन्होंने विभिन्न कारणों से और मजूबरी में उससे सुलह-सन्धि या उसकी अधीनता तो स्वीकार कर ली थी, लेकिन वे हृदय से महाराणा प्रताप की नीति को सही मानते थे। उनकी पक्षधरता भी प्रताप के साथ थी। निश्चय ही अकबर उनकी स्थिति से अनभिज्ञ नहीं होगा। इसका वह राजपूतों को यह दिखाना चाहता था कि उसने तो युद्ध टालने की बहुत कोशिश की, पर मजबूरी में जंग लड़ने को मजबूर होना पड़ा है।क्या कभी किसी इतिहासकार ने मुगल सम्राट अकबर द्वारा महाराणा प्रताप के समक्ष रखी सन्धि की शर्तों को एक स्वतंत्रता प्रिय स्वाभिमान राजपूत की तरह रख कर विचार किया ? अकबर ने बार-बार सुलह के प्रयास अवश्य किये, किन्तु वे शर्तें प्रताप के स्वभाव और उनकी कुल मर्यादाओं के अनुरूप नहीं थी, जिसके कारण वह चित्तौड़ पतन के बाद भी अपने वंश गौरव और स्वाभिमान की रक्षा हर हाल में अक्षुण्ण बनाये रखने को तत्पर थे। फिर भी अकबर दूसरे राजपूत राजाओं सरीखी शर्तें प्रताप से मनवाना चाहता था, किसी भी दशा में प्रताप को स्वीकार नहीं थी। उसकी कूटनीति के प्रत्युत्तर में प्रताप की ‘बहाना’ बनाने और ‘दिलासा देने’की नीति अपनायी , जिसने अकबर के मन में यह आशा जगाए रखी कि अन्ततः प्रताप उसके सम्मुख झुक जाएगा। इस कूटनीति में प्रताप ने निश्चय ही बाजी मार ली और लगभग चार वर्षों तक युद्ध को टालने में सफल रहा। वस्तुस्थिति यह है कि मुगल साम्राज्य को विशाल शक्ति से उत्पन्न अपने अहंकार,हठ प्रतिष्ठा-भावना और साम्राज्यीय महत्त्वाकांक्षा के कारण अकबर ने कोई महत्त्व नहीं दिया। उसके दूत मण्डलों द्वारा प्रताप ने एक सम्मानजनक समझौते के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष जो भी प्रस्ताव संकेत अकबर को दिये, उनको अकबर ने अनदेखा किया। वह अपने इस निर्णय पर अड़ा रहा कि प्रताप हर हालत में मुगल दरबार में हाजिर हो, उसको सलामी दे, और अन्य राजाओं की तरह साम्राज्य की चाकरी करें। इस लिए तथ्यान्वेषण के आधार पर यह सिद्ध हो जाता है कि मेवाड़-मुगल वार्ता की विफलता के लिए जो भी कारण रहे, उनके लिए अकबर का उच्च साम्राज्यीय अहंकार और हठ ही उत्तरदायी रहे। उसके लिए प्रताप को हठी बताकर उसको दोषी बताना ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वथा गलत है। 1. प्रताप स्वयं को मुगल दरबार में हाजिर होने तथा मुगल सेना से मुक्त रखना चाहता था। प्रत्येक दूत मण्डल को उसने इसके सम्बन्ध में अपनी मजबूरी बतायी थी। भगवानदास के साथ कुँवर अमरसिंह को अकबर के पास भेजने वाली बात यदि सही मानी जाए तो मेवाड़ की तत्कालीन परिस्थिति में अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने प्रतिनिधि के तौर पर मुगल दरबार में भेजने के लिए वह सम्भवतः राजी हो जाता, किन्तु अकबर की जिद्द थी कि प्रताप स्वयं दरबार में हाजिर हो। जहाँगीर के काल में सन् 1615ई.में जब मेवाड़ मुगल सन्धि में हुई, तब जहाँगीर ने अपने पिता वाली जिद्द छोड़ दी और राणा प्रताप स्वयं मुगल दरबारी और सेवक बनने से बचा रहा। 2. प्रताप ने मुगल सम्राट के आधिपत्य को इस आधार पर स्वीकार करने को सहमत थे कि मेवाड़ की स्वायत्तता अर्थात् अतिरिक्त स्वतंत्रता बनी रहे और मेवाड़ के जीते हुए इलाके इसको लौटा दिये जाएँ, दोनों राज्यों के बीच अनाक्रमण, सह अस्तित्व तथा पारस्परिक सहयोग के सम्बन्ध कायम रहें और मेवाड़ विदेशी एवं व्यापार आदि बाहरी मामलों में मुगल आधिपत्य में रहे।
यदि भारतीय दृष्टि से इतिहासकार महाराणा प्रताप और दूसरे ऐतिहासिक महापुरुषों को इतिहास में उनका वांछित देते हुए मूल्यांकन करते ,तो आज उनकी स्थिति अलग होती।
सम्पर्क-डॉ.बचन सिंह सिकरवार 63ब गाँधी नगर,आगरा-282003मो.नम्बर-9411684054

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